समाचार पत्रों में ख़बरें आती हैं लोंगों की दिल्चिस्पी का हिस्सा बनाने तक रहती हैं और फिर वैसे ही गायब हो जाती हैं, पर कभी-कभी ये ख़बरें खुद से जुड़े हुए लोंगो के जीवन में तूफान खड़ा कर जाती हैं।
मैं फिर से एक ही बात को बार बार कहना चाहूँगा की मैं और आप या फिर पूरी सरकार मिल कर भी बच्चो को वो खुशियाँ नहीं दे सकती जो अकेले गुरुमहाराज (नारायण राव) दे सकते थे। पिछले रविवार को आश्रम की गौशाला में एक गाय और उसका बच्चा ख़त्म हो गए। गाय और बच्चे को बचने की हर संभव कोशिश की गयी पर वे नहीं बचे, आश्रम में पहले ४-५ खरगोश थे, और २ बड़े आकर के चूहे, पर अभी सब गायब हो गए हैं। बच्चे कहते हैं अगर गुरुमहाराज होते तो ऐसा नहीं होता। हालाँकि उनकी देखभाल उस वक्त भी बच्चे करते थे और अभी भी बच्चे ही करते हैं पर आज वो नेतृत्व नहीं है जो नारायण राव के वक्त हुआ करता था। मैं नहीं कहता की नारायण राव के रहने से कोई चमत्कार होता और वो गाय और उसका बच्चा बच जाते फिर भी एक कसक तो रह ही जाती है ना की काश गुरुमहाराज इस वक्त आश्रम में होते ! मंदिर में भी रोज़ शाम प्राथना होती है, पर मैंने वो शाम की जगमगाहट वापस नहीं देखी जोमैने पहले दिन देखी थी
कुछ लोंगो ने नारायण राव पर आरोप लगाया था की वे बच्चों की आड़ में लोंगो को उल्लू बना रहे हैं। मैं उन लोंगो को भी जवाब देना चाहता हूँ-
अगर सिर्फ पैसों के लिए नारायण राव ने आश्रम को चलने का निर्णय लिया तो मेरे हिसाब से या तो वो बहुत बड़े दूर-दृष्टा रहे होंगे जो ये जनता होगा की १५ साल पहले वो जिस काम में हाथ डालने वाले हैं उसमे कुछ दानदाताओं से मिले हुए रकम से वे अपना उल्लू सीधा कर सकेंगे या फिर पागल जो बिना सोचे समझे कम करने में विश्वास रखता है, क्योंकि आश्रम के कुशल सञ्चालन में जितने पापड़ बेलने पड़ते हैं वो, केवल एक संचालक जान सकता है। दूर से बैठकर दूसरों पर आरोप लगाना बड़ा आसन काम है पर जब वो खुद पर बिताती है तो समझ में आता है की वास्तविकता क्या है।
आज से १०-११ साल पहले नारायण राव ने आश्रम की नीवं तब रखी थी जब उनके पास कुछ नहीं था। उनके पास आश्रम के नाम पर इकट्ठा किये केवल दो-चार बच्चे थे, उस वक्त ना तो उनके पास बच्चों को रखने के लिए कोई स्थाई प्रबंध था और ना ही उन्हें खिलने की कोई नियमित व्यवस्था, कुछ था तो बस एक अच्छी भावना और बच्चों के लिए कुछ कर जाने की तमन्ना। दलदल शिवनी (मोवा) से शुरू की हुई ये कहानी गुढ़ियारी रोड (कोटा) से होती हुई आज जाकर गुरुकुल आश्रम (हथबंद) में जाकर रुकी है।
नारायण राव के पास एक स्कूटर थी उस वक्त धुल बहरे रास्तों से उसी पर वे बच्चों के लिए सब्जी वगैरह लेट थे। ये सब कुछ बच्चों से सुनी हुई घटनाओं का अंश मात्र है पूरी कहानी में इतने उतर- चढाव हैं की आप या मेरे जैसे लोग होते तो कब का हिम्मत छोड़ चुके होते पर नारायण राव का सदुत्साह जारी रहा। पर शायद इसी सदुत्साह की कीमत उन्हें चुकानी पद रही है।
नारायण राव पर जिस बच्ची को बेचने का आरोप लगा है, अगर नारायण राव नहीं होते तो शायद वो बच्ची जिंदा भी नहीं बचती जब उसे आश्रम लाया गया था तो उसके गले और बदन पर खरोंच था और उसका शारीर खुद के मल से बुरी तरह सना हुआ था। शारीर इतना कमजोर था की अगर २-३ दिन वो सही देखभाल नहीं पति तो सचमुच ख़त्म हो जाती। नारायण राव ने सिर्फ एक गलती की है उन्होंने कानून से ऊपर इन्शानियत को रखा। सच है आज कानून इन्शानियत से बड़ा है। शायद इसी वजह से नारायण राव जैसे लोग कम है और जो हैं वो किसी ना किसी स्सजिस का शिकार बन रहें हैं। शायद यही इस कलयुगी दुनिया का वसूल है। पर मैं भगवन पर अँधा विश्वास करता हूँ मैं मानता हूँ की भगवन कभी अच्छे आदमी के साथ नाइंसाफी नहीं होने देगा और गुनाहगार जरुर एक ना एक दिन सजा पायेगा।