मंगलवार, जनवरी 25, 2011

स्वतंत्र भारत में हम कितने स्वतंत्र......

मैं हमेशा से ये सोचता आया हूँ , की मैं एक स्वतंत्र भारत का नागरिक हूँ , पर अब लगता है शायद इस धारणा को बदलने का समय गया हैआज दस महीनों का वक्त बीत चूका है और गुरुकुल आश्रम के भविष्य का फैसला नहीं हो सका हैसरकार और सरकार की नीतियां क्या हैं ये तो मेरी समझ से दूर हैं, हाँ मुझे जितना समझ मेंआता है वो बस इतना है की सब जो भी हो उन आनाथ बच्चों के हित में तो बिल्कुल नहीं
इन दस महीनों में जितना कुछ बीत चूका है उन सबका वर्णन करना तो शायद मेरे लिए संभव हो पर अगरमें सक्षेप में कुछ कहना चाहूँ तो वो बस इतना है की जो भी हो रहा है वो अगर गलत नहीं है तो सही भी कतई नहीं हैइन दस महीनो में आश्रम में हो रही प्रगति तो थम ही गई, बच्चो की मनोवृत्ति पर भी गहरा असर हुआ है, उनके चरित्र में एक गहरा अंतर आया है। सरकारी बाशिंदों के बारे में मुझे अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है , उनके काम करने के तरीकों से आप सभी भली भली भांति परिचित हैं, और आश्रम में कार्यरत सरकारी कर्मचारी भी वैसा ही कम करते चले जा रहें हैं । क्या इन अनिकेतों को भोजन और रटी रटाई शिक्षा प्रदान करने भर से समाज और सरकार की जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है । क्या चरित्र निर्माण और एक अच्छा जीवन स्तर इन बच्चों के लिए नहीं है?क्या देश के भविष्य में इन बच्चों का कोई योगदान नहीं होगा ?
तों फिर क्यों कोई इन बच्चों के लिए कुछ अलग नहीं सोचता , की आज भी हम इन्हें समाज के अंग के रूप में नहीं अपना पा रहे हैं? आखिर क्यों समाज अपना वो योगदान नहीं दे रहा है जिसकी जरुरत है मैं केवल रुपयों - पैसों की ही बात नहीं कर रहा हूँ ....हाँ रुपयों - पैसों की जरुरत तो हमेशा रहेगी क्योंकि एक या फिर दो आदमी ५० बच्चों के भरण पोषण का भर नहीं उठा सकते पर मैं बात कर रहा हूँ वैचारिक सहयोग की क्या एक सामान्य परिवार में पलने वाला बच्चा केवल पैसों और साधनों के बल पर समाज का एक अंग बन सकता है ? अगर नहीं तो फिर इन अनिकेतों के लिए ये बात क्यों नहीं लाघू होती ?क्या इन बच्चो के लिए एक माँ बाप की जरुरत नहीं है? अगर है तो क्यों समाज इसकी जिम्मेदारी नहीं उठता ?और कोई अगर ये जिम्मेदारी उठाने की कोशिश करता है तो क्यों उसकी तंग खींचता है...क्यों उन पर बेवजह कीचड़ उछाल कर उन्हें दागदार बनाता है?
गुरुकुल आश्रम में आज बच्चे भटक रहे हैं , यहाँ की जो चीज मैं सबसे ज्यादा पसंद करता था वो धीरे धीरे कहीं खोती जा रही है। यहाँ का तनावमुक्त वातावरण जाने क्यों प्रदूषित होता जा रहा है। मैंने ये सब देखा है , महसूस किया है इस लिए आज फिर से लिखने पर मजबूर हुआ हूँ। जानता हूँ शायद मेरे शब्द यहीं तक सिमित रह जाएँ पर लिख रहा हूँ ... जाने किस आशा में
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