मैं हमेशा से ये सोचता आया हूँ , की मैं एक स्वतंत्र भारत का नागरिक हूँ , पर अब लगता है शायद इस धारणा को बदलने का समय आ गया है। आज दस महीनों का वक्त बीत चूका है और गुरुकुल आश्रम के भविष्य का फैसला नहीं हो सका है। सरकार और सरकार की नीतियां क्या हैं ये तो मेरी समझ से दूर हैं, हाँ मुझे जितना समझ मेंआता है वो बस इतना है की सब जो भी हो उन आनाथ बच्चों के हित में तो बिल्कुल नहीं।
इन दस महीनों में जितना कुछ बीत चूका है उन सबका वर्णन करना तो शायद मेरे लिए संभव न हो पर अगरमें सक्षेप में कुछ कहना चाहूँ तो वो बस इतना है की जो भी हो रहा है वो अगर गलत नहीं है तो सही भी कतई नहीं है। इन दस महीनो में आश्रम में हो रही प्रगति तो थम ही गई, बच्चो की मनोवृत्ति पर भी गहरा असर हुआ है, उनके चरित्र में एक गहरा अंतर आया है। सरकारी बाशिंदों के बारे में मुझे अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है , उनके काम करने के तरीकों से आप सभी भली भली भांति परिचित हैं, और आश्रम में कार्यरत सरकारी कर्मचारी भी वैसा ही कम करते चले जा रहें हैं । क्या इन अनिकेतों को भोजन और रटी रटाई शिक्षा प्रदान करने भर से समाज और सरकार की जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है । क्या चरित्र निर्माण और एक अच्छा जीवन स्तर इन बच्चों के लिए नहीं है?क्या देश के भविष्य में इन बच्चों का कोई योगदान नहीं होगा ?
तों फिर क्यों कोई इन बच्चों के लिए कुछ अलग नहीं सोचता , की आज भी हम इन्हें समाज के अंग के रूप में नहीं अपना पा रहे हैं? आखिर क्यों समाज अपना वो योगदान नहीं दे रहा है जिसकी जरुरत है । मैं केवल रुपयों - पैसों की ही बात नहीं कर रहा हूँ ....हाँ रुपयों - पैसों की जरुरत तो हमेशा रहेगी क्योंकि एक या फिर दो आदमी ५० बच्चों के भरण पोषण का भर नहीं उठा सकते पर मैं बात कर रहा हूँ वैचारिक सहयोग की । क्या एक सामान्य परिवार में पलने वाला बच्चा केवल पैसों और साधनों के बल पर समाज का एक अंग बन सकता है ? अगर नहीं तो फिर इन अनिकेतों के लिए ये बात क्यों नहीं लाघू होती ?क्या इन बच्चो के लिए एक माँ बाप की जरुरत नहीं है? अगर है तो क्यों समाज इसकी जिम्मेदारी नहीं उठता ?और कोई अगर ये जिम्मेदारी उठाने की कोशिश करता है तो क्यों उसकी तंग खींचता है...क्यों उन पर बेवजह कीचड़ उछाल कर उन्हें दागदार बनाता है?
गुरुकुल आश्रम में आज बच्चे भटक रहे हैं , यहाँ की जो चीज मैं सबसे ज्यादा पसंद करता था वो धीरे धीरे कहीं खोती जा रही है। यहाँ का तनावमुक्त वातावरण न जाने क्यों प्रदूषित होता जा रहा है। मैंने ये सब देखा है , महसूस किया है इस लिए आज फिर से लिखने पर मजबूर हुआ हूँ। जानता हूँ शायद मेरे शब्द यहीं तक सिमित रह जाएँ पर लिख रहा हूँ ...न जाने किस आशा में........
अनिकेतन
मंगलवार, जनवरी 25, 2011
मंगलवार, अप्रैल 06, 2010
गुरुकुल आश्रम और बच्चे
समाचार पत्रों में ख़बरें आती हैं लोंगों की दिल्चिस्पी का हिस्सा बनाने तक रहती हैं और फिर वैसे ही गायब हो जाती हैं, पर कभी-कभी ये ख़बरें खुद से जुड़े हुए लोंगो के जीवन में तूफान खड़ा कर जाती हैं।
कुछ राजनीतिज्ञों ने अपने स्वार्थ के लिए सहारा न्यूज़ के साथ मिलकर गुरुकुल आश्रम के संचालक नारायण राव के स्टिंग ओपरेशन के नाम पर एक भयानक साजिस को अंजाम दिया, हालाँकि उस साजिस का पर्दापास होने में अभी कानून की तरफ से वक्त है फिर भी लोंगो को सच्चाई बतलाने की हमारी कवायद जारी है। इस साजिस में सबने आपना उल्लू सीधा किया। न्यूज़ चैनल्स को अपने आधे घंटे का प्रोग्राम मिल गया और अख़बार वालों को अपने पन्ने भरने के लिए एक खबर। राजनितिज्ञ भी अपनी - अपनी कूटनीति के दावं खेलने में व्यस्त हो गए हैं। अब राज्यसभा के गलियारों में आश्रम का मुद्दा भी गूंजेगा।पर आश्रम में बच्चों की वो प्यारी सी दुनिया पूरी तरह बदल गयी है। सरकारने सुरक्षा के लिए गार्ड्स लगाकर और व्यवस्था बनाये रखने के लिए सामाज कल्याण विभाग को लगाकर ज़रूर बच्चो के प्रति उदारता दिखाई है पर बच्चो की खुशियाँ वापस लौटाने के लिए ये नाकाफी है। क्योंकि सरकार बच्चों के खाने पिने की व्यवस्था तो कर सकती है पर अपने साथ बच्चों की खुसी के लिए कुछ भी करने का वो सदिक्षा कहाँ से लाएगी जो सिर्फ नारायण राव जैसे लोंगो में ही होती है।
मैं फिर से एक ही बात को बार बार कहना चाहूँगा की मैं और आप या फिर पूरी सरकार मिल कर भी बच्चो को वो खुशियाँ नहीं दे सकती जो अकेले गुरुमहाराज (नारायण राव) दे सकते थे। पिछले रविवार को आश्रम की गौशाला में एक गाय और उसका बच्चा ख़त्म हो गए। गाय और बच्चे को बचने की हर संभव कोशिश की गयी पर वे नहीं बचे, आश्रम में पहले ४-५ खरगोश थे, और २ बड़े आकर के चूहे, पर अभी सब गायब हो गए हैं। बच्चे कहते हैं अगर गुरुमहाराज होते तो ऐसा नहीं होता। हालाँकि उनकी देखभाल उस वक्त भी बच्चे करते थे और अभी भी बच्चे ही करते हैं पर आज वो नेतृत्व नहीं है जो नारायण राव के वक्त हुआ करता था। मैं नहीं कहता की नारायण राव के रहने से कोई चमत्कार होता और वो गाय और उसका बच्चा बच जाते फिर भी एक कसक तो रह ही जाती है ना की काश गुरुमहाराज इस वक्त आश्रम में होते ! मंदिर में भी रोज़ शाम प्राथना होती है, पर मैंने वो शाम की जगमगाहट वापस नहीं देखी जोमैने पहले दिन देखी थी
कुछ लोंगो ने नारायण राव पर आरोप लगाया था की वे बच्चों की आड़ में लोंगो को उल्लू बना रहे हैं। मैं उन लोंगो को भी जवाब देना चाहता हूँ-
अगर सिर्फ पैसों के लिए नारायण राव ने आश्रम को चलने का निर्णय लिया तो मेरे हिसाब से या तो वो बहुत बड़े दूर-दृष्टा रहे होंगे जो ये जनता होगा की १५ साल पहले वो जिस काम में हाथ डालने वाले हैं उसमे कुछ दानदाताओं से मिले हुए रकम से वे अपना उल्लू सीधा कर सकेंगे या फिर पागल जो बिना सोचे समझे कम करने में विश्वास रखता है, क्योंकि आश्रम के कुशल सञ्चालन में जितने पापड़ बेलने पड़ते हैं वो, केवल एक संचालक जान सकता है। दूर से बैठकर दूसरों पर आरोप लगाना बड़ा आसन काम है पर जब वो खुद पर बिताती है तो समझ में आता है की वास्तविकता क्या है।
आज से १०-११ साल पहले नारायण राव ने आश्रम की नीवं तब रखी थी जब उनके पास कुछ नहीं था। उनके पास आश्रम के नाम पर इकट्ठा किये केवल दो-चार बच्चे थे, उस वक्त ना तो उनके पास बच्चों को रखने के लिए कोई स्थाई प्रबंध था और ना ही उन्हें खिलने की कोई नियमित व्यवस्था, कुछ था तो बस एक अच्छी भावना और बच्चों के लिए कुछ कर जाने की तमन्ना। दलदल शिवनी (मोवा) से शुरू की हुई ये कहानी गुढ़ियारी रोड (कोटा) से होती हुई आज जाकर गुरुकुल आश्रम (हथबंद) में जाकर रुकी है।
नारायण राव के पास एक स्कूटर थी उस वक्त धुल बहरे रास्तों से उसी पर वे बच्चों के लिए सब्जी वगैरह लेट थे। ये सब कुछ बच्चों से सुनी हुई घटनाओं का अंश मात्र है पूरी कहानी में इतने उतर- चढाव हैं की आप या मेरे जैसे लोग होते तो कब का हिम्मत छोड़ चुके होते पर नारायण राव का सदुत्साह जारी रहा। पर शायद इसी सदुत्साह की कीमत उन्हें चुकानी पद रही है।
नारायण राव पर जिस बच्ची को बेचने का आरोप लगा है, अगर नारायण राव नहीं होते तो शायद वो बच्ची जिंदा भी नहीं बचती जब उसे आश्रम लाया गया था तो उसके गले और बदन पर खरोंच था और उसका शारीर खुद के मल से बुरी तरह सना हुआ था। शारीर इतना कमजोर था की अगर २-३ दिन वो सही देखभाल नहीं पति तो सचमुच ख़त्म हो जाती। नारायण राव ने सिर्फ एक गलती की है उन्होंने कानून से ऊपर इन्शानियत को रखा। सच है आज कानून इन्शानियत से बड़ा है। शायद इसी वजह से नारायण राव जैसे लोग कम है और जो हैं वो किसी ना किसी स्सजिस का शिकार बन रहें हैं। शायद यही इस कलयुगी दुनिया का वसूल है। पर मैं भगवन पर अँधा विश्वास करता हूँ मैं मानता हूँ की भगवन कभी अच्छे आदमी के साथ नाइंसाफी नहीं होने देगा और गुनाहगार जरुर एक ना एक दिन सजा पायेगा।
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